इब्तदा से इंतेहा तक का एक सफर ,
एक सफर में एक हमसफ़र ,
एक मैं और एक मेरा साया …
दिन भर नंगे पैर चलता रहा था मेरे साथ ,
शाम होते है सो गया वो
अँधेरे के दुशाले को लपेटकर …
अब मैं तनहा तनहा ,
आकाश में चाँद और सितारों की भीड़ में
घिरा घिरा सा ,घुटन को लिए दबाये भीतर ,
मेरी तनहाई को अमूमन बिखेरने के लिए ,
तैयार थे एक बडीसी तश्तरी हाथ में लिए ,
उसमे सपनोकी सुनमहोरें सजी थी ,
सब मेरे लिए ही थी ऐसे भी कहा रातने ,
मेरे कानोमे हवाकी तरंग पर गुनगुनाते …
मैं चुपचाप ख़ामोशी से इंतज़ार करता रहा ,
परछाईं के जागने का ,
खुद पर एक टाट का पैबंद लगाकर ……
आपको यह बताते हुए हर्ष हो रहा है के आपकी यह विशेष रचना को आदर प्रदान करने हेतु हमने इसे आज के ब्लॉग बुलेटिन - रे मुसाफ़िर चलता ही जा पर स्थान दिया है | बहुत बहुत बधाई |
जवाब देंहटाएंBadhiya likha
जवाब देंहटाएं...बहुत खूब
जवाब देंहटाएंउजाले के साथ जागेगी परछाई भी।
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