21 दिसंबर 2011

एय नाज़नीं ये तुम्हारे नाम और ये कविता भी ....

मासूमियतने मुस्कुराना सिखाया था मुझे ,
आँखे कह रही थी ,
ये भाषा समज सको तो समज लो ...
मैंने कहा तुम जिंदगीसे बहुत प्यार करते हो ,
लेकिन जताना उस प्यारको बेकार समजते हो ,
क्योंकि जिंदगीको फुर्सत नहीं तुम्हारे प्यारको समजने की ,
क्योंकि ये जिंदगी शायद तुमसे ज्यादा तुम्हे प्यार करती है ........
आँखे फैलाकर तुम्हारे चेहरे पर एक तस्वीर बन गयी ,
तुमने समज लिया की  तुम्हारी चोरी को मैंने पकड़ ली .....
बस अब ये होठो पर रुकी हंसी को बहार तो आने दो ....
बिचारी अन्दर कसमसा रही है ..
उसे खुलकर फिजाओंमें उड़ने दो ..................
-ये कविता मेरे हाल ही में रखे ब्लॉगकी तस्वीर के लिए ....
एय नाज़नीं ये तुम्हारे नाम और ये कविता भी ....

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