19 जनवरी 2011

अय सागर की लहरों ...

दूर तकती एक नज़र
पहुँच रही थी जहाँ तक
जमीं आसमांसे वहां गले मिल रही
हर डगर हर शहर हर शाम हर सहर .......
खारे जलका एक काफिला था फैला सरहदों के पार तक
उमंगें मौज बनकर
कनारे से टकरा रही थी श्वेत झागके परिधानमें
आसमां अपना अक्स देख मुस्कुरा रहा था नीला नीला
और उस सागरका मुख पार उड़ रही थी लहरों की चुनर हवा के झोंकोसे
ये अठखेलियाँ देखती हुई उसकी नज़रे
दूर दूर तक बहती रही कहती रही
" अय वक्त जरा सा रुक जा मेरे लिए
इस साहिलसे उस लहरों पर तेरे साथ चलने दे
एक कश्तीमें तु चाँद को लेकर आ जा
सूरजको अपनी गोदमें बिठाकर हम लायेंगे ...."

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

विशिष्ट पोस्ट

मैं यशोमी हूँ बस यशोमी ...!!!!!

आज एक ऐसी कहानी प्रस्तुत करने जा रही हूँ जो लिखना मेरे लिए अपने आपको ही चेलेंज बन गया था । चाह कर के भी मैं एक रोमांटिक कहानी लिख नहीं पायी ...