12 नवंबर 2010

आज बस यूँहीं ....

आज कल सुबह सुबह बहुत अँधेरा रहेता है तब चलने निकलती हूँ ...कल एक पॉँच साल की लड़की अपने हाथ में आठ नौ महीने का बच्चा उठकर फटे हुए कपडेमें एक हाथ में बच्चा और दुसरे हाथ में दूधकी पोलीथिन बेग उठाकर चल रही थी .....बच्चा रो रहा था ...उस मासूम ने उसे दूध की बेग थमा दी ...वो बच्चा चुप हो गया ...मैंने उसे पूछा कहाँ रहती हो ???उसने हाथसे सामनेवाली फूट पाथके तरफ ऊँगली की वहां उसकी माँ उसकी राह देख रही थी .....
बहुत कुछ विचार आते रहे जाते रहे ...इस मासूम के लिए जिंदगी क्या है ? वो छोटा बच्चा इस दुनियामें आया है पर जीने का हक़ या मतलब क्या है उसके लिए ....ये लोग दो गरीब लोगके वहां शायद बिनबुलाये मेहमान की तरह आये होंगे .....दिल थोडा दुखी हो गया .......तब आते आते ऊपर नज़र उठी और ऊपरवाले का शुक्रिया कहा ....तुने हमें कितना कुछ दिया है पर हमने कभी तेरा शुक्रिया नहीं किया ....घर आकर लगा मैं सच मुच बहुत धनी हूँ ...पैसे से ना सही पर बहुत कुछ है मेरे पास .....उस बच्ची का चेहरा और वो छोटा सा बच्चा अभी भी दिख रहे है मुझे ....
दुनिया में हर प्राणीने अपनी सारी कुदरती हदों का पालन किया है इसी लिए वो शायद गूंगे होते हुए भी हमसे सुखी है पर एक हरी नोट ने इंसान को इंसान से बाँट दिया है ..........अलग रखा है और ये खाई दिन ब दिन बढ़ती जा रही है ...एक जगह रूपये के समुन्दर है और एक तरफ पेट में गहरा गढ्ढा ........
लगता है ये बुध्धि ही हमारी सबसे बड़ी दुश्मन है ......

1 टिप्पणी:

  1. "एक हरी नोट ने इंसान को इंसान से बाँट दिया है"
    बहुत खूब कहा आपने..

    एक घर में ५-५ गाड़ियां भी कम पड़ती हैं और यहाँ पैरों में छाले पड़े लोग तपती धूप में काम कर-करके किसी तरह दो जून की रोटी खा रहे हैं..
    जब तक इंसान संतुष्ट नहीं होगा, तब तक उसे मुक्ति नहीं मिलेगी..

    आभार

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