4 मार्च 2010

ये परीक्षा ...ये वेकेशन ....

आजसे बोर्डके इम्तिहान शुरू हो रहे है ...

अब लगता है होली का गुलाल रंगहीन बन गया है और माँ सरस्वतीकी आराधना अत्र तत्र सर्वत्र की जाने लगी है ..आज के ऐनक लगे, कंधो पर भारीभरकम बेग मजदूर जैसे किताबों का बोजा लादकर जा रहे मासूमोकी दया उसके माँ बाप को भी नहीं आ रही वो आने वाले दिनोंमें दिखने वाले कुछ धुंधले भविष्यके नज़ारे है .....

आजसे दो साल पहले मेरी बेटीने जब अपने करियरको लेकर मेरी राय मांगी तब मैंने उसे बेहिचक येही कहा बेटे तुम क्लिनिकल सायकोलोजीमें डिग्री ले लो ...क्योंकि आने वाला युग ये है की ये लोगोंकी जरूरत लोगों को सबसे ज्यादा पड़ने वाली है ...क्योंकि अब तो दसवी बोर्ड की एक्साम को भी लोगोने महाभारत के रणसंग्राम से भी ज्यादा गंभीर समजना शुरू कर दिया है ...खैर बेटीने तो अपने पसंदके विषय में आगे पढना बेहतर समजा ...पर मेरी बात को गौर से समजो तो वजूद नजर आ जाएगा ...

एक अच्छी स्कुलमें के जी में एडमिशनसे लेकर ही स्ट्रेस शुरू होता है जो जीवनके आखरी सांस तक पीछा नहीं छोड़ता ...और बहुत ही खेद जनक बात ये है की इसके लिए जिम्मेदार हम खुद है और कोई नहीं ...कोई कोई इक्के दुके माँ बाप तो जब तक संतानकी जान नहीं चली जाती तब तक ये बात नहीं समज पाते की संतान उनके जिस्म का एक अंश होने के बावजूद उसका कोई स्वतन्त्र व्यक्तित्व है ....

पहले के जमानेमें वेकेशन का इंतज़ार हुआ करता था ...मामा चाचा के घर जाकर हुडदंग मचाना हर बच्चे का हक़ हुआ करता था ...फिर सब हमारे यहाँ भी आते थे तब उनको अपने शहर का चिड़ियाघर दिखाने ले जाते वक्त कभी थकान नहीं महसूस होती थी ...ममेरे चचेरे भाई बहन में कोई फर्क नज़र नहीं आता था ...चाचा चाची ,मामा मामी का दुलार अभी भी याद आता है ...ये रिश्ते हमारी साँसों के जितने ही कल भी जरूरी थे और शायद आज तो ज्यादा जरूरी बन गए है और अफ़सोस ! अनदेखे भी !!!

आज कल आई. क्यू जितना जरूरी है उससे भी थोडा ज्यादा जरूरी बन चूका है इ. क्यू ...याने की इमोशनल कोशंत्त ....और इसके लिए जरूरी होते है रिश्ते ...आज कोई मेहमान आता है तो भी उसका हंसकर बुलाना तो दूर पर उसके जाने का इंतज़ार पहले होता है इस हद तक शहरी इंसान स्वार्थी हो चूका है ...हाँ महेंगाई जरूर बढ़ गई है पर ये दिल का कोरापन खल रहा है ...इंसान इंसान से कट रहा है ...रिश्तो से दूर भागता है -करियर को इतनी ज्यादा अहमियत दी जा रही है ...और आखिर कर ये उसकी महत्वकांक्षा ही उसकी सबसे बड़ी दुश्मन थी ये बात उसे तब समजमें आती है जब वो पूरी तरह से टूट जाता है ...

बचपनमें हमें कोई स्ट्रेस नहीं था उसका एक जरूरी कारण ये भी था ...हम गम ख़ुशी को बाँट लेते थे और दिल पर कोई बोज नहीं पड़ता था ...वेकेशनके दो महीनोमें हमारे बच्चोको पूरी तरह उनकी इच्छा से ही गुजारने की इजाजत दे दो ..उनकी पसंद की हरकते ,एक्टिविटी करने दो ...और पढ़ाई से तो बिलकुल दूर रखो ...हाँ टीवी ,वीडियो ज्यादा करीबी मत रखने दो ......खुद मेहमान बनो और मेहमानों को बुलाओ ...हाँ पहले पंद्रह दिन के लिए जाते थे अब तीन चार दिन के लिए तो आ जा सकते हो ....ये शुरुआत अभी करोगे तो थोड़े बरसोके बाद ये जरूर लगेगा की हमारा स्ट्रेस हमारे पडोसीके स्ट्रेस से कितना कम है !!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!

1 टिप्पणी:

  1. "प्रीति, आपने सही और सटीक आर्टिकल लिखा है......"
    प्रणब सक्सैना
    amitraghat.blogspot.com

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