27 जनवरी 2010

सपनो का घर

कल जहाँ टूटे थे सपने मेरे

किरचें बन सरेराह बिखरे हुए ,

वहां कुछ अरसे बाद फूल उगे नज़र आने लगे

हवाओंमें खुशबू ये संदेस लाये है ....

गर फूलोंके लिए है ये मंज़र जरूरी पनपनेके लिए

हम रोजमर्रा अपने सपने तोड़ यूँ राहोंमें बिखेरे जायेंगे ......

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चंद रूपों में बिकते नज़र आये कफ़न

कब्र को भी इंतज़ार अरमानोंकी लाश का .....

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ये आलिशान इमारतको लोग मेरा मकान कहते है ,

ना जाने कोई नींवमें उसकी मेरे सपने दफ़न है .....

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