पिछले तीन दिनोंमें त्यौहार का माहौल रहा ..सबने जमकर मज़ा भी किया ...कुछ नहीं तो घरमें बैठकर आराम तो जरूर किया ...पर कुछ चीजोंने मुझे एक बात सोचने पर मजबूर कर दिया ...
छोटी थी तब दीवाली के दिनों में ही छोटे बच्चे पतंग उड़ाना शुरू कर देते थे ...अब सिर्फ दो ही दिन ....बच्चे थोड़े तीन चार दिन पहले ...क्यों ???इस क्यों का जवाब हमारे पास है पर हमारे विचारमें ये बिलकुल प्रेक्टिकल नहीं है इस लिए अनदेखा कर दिया गया है ....
हम अब प्रोफेशनल हो गए है ...प्रोफेशनल लेखक ,अदाकार ,मेनेजर , उद्योगपति , नौकरी करने वाला हर व्यक्ति जो उपरी बैठक को सजाता है और हाथ नीचे काम करने वालोंसे भी यही अपेक्षा करते है ...जहाँ पर इमोशनल होनेवाला कभी कभी ही सफल हो पता है ..प्रोफेशनल होने से रुपयेके पेड़ से अधिक फल मिल जाते है ....
उदहारण देती हूँ :
कंपनीने ऑफिस के काम से तीन महीने अमेरिका भेजा ...दिवाली का त्यौहार आ रहा है ...पर इस त्यौहार पर घर के व्यक्ति का दूर होना अखरता हो जरूर है पर पैसे और अनगिनत शोपिंग का नशा ये गम भुला देता है ....ना जाने वाले को गम है ना घर पर अकेले रहने वाले को ...अगर पत्नी या पति इस बारे में फ़रियाद करें तो येही जवाब होता है तरक्की के लिए ये सब करना ही पड़ता है वर्ना पीछे रह जायेंगे ...
बोलो किससे पीछे रहोगे ? अपने आप से ये छलावा ये प्रोफेशनालिस्मकी भेंट है ....जिंदगी की छोटी छोटी खुशियाँ हमसे छिनकर ये बड़े बड़े सपने दिखता है और हमें खुद से ही बेगाना कर देता है ...बड़ी पगार के बाद बड़ी रेस्टोरंट में काँटा छुरी पकड़कर खाने से शान तो बढती है पर ठेले पर पानी पूरी चटकारे लेकर खाने की मजा है वो छीन जाती है ...पेट तो भरता है पर संतुष्टि नहीं मिल पाती ...और मजे की बात तो ये है की हमें इस बात का एहसास भी हमें नहीं होता ....नौकरी करने वाली माँ के बच्चे का पहला कदम भरना और माँ की उस बात की साक्षी रहना ......शायद अब मुमकिन नहीं ...और ये बातें हमें खुश नहीं रहने देती और जब ये बातों से दिल भर जाता है तब सोचो ये जो रोग है वो दिल की बीमारी से जुड़े और मधुमेह वगैरह ..जो स्टेटस सिम्बल के लिस्ट में नजर आते है वो हमारे किरायेदार बन जाते है जो मकान खाली करते ही नहीं .......
कल शाम वासी उत्तरायण थी, हमारे अपार्टमेन्ट में रहने वाले कुछ "बड़े" लोग ऊपर छत पर तशरीफ़ ले आये ...और एक दुसरे से जैसे कोई जान पहचान भी ना हो इस तरह का बर्ताव भी देखा गया ....मैं अपने घर लौट गयी क्योंकि ऐसे पंचायत करने वाले लोगोंकी फितरत मालूम है ...जो आकाशमें पतंग नहीं देखते पर एक दुसरे को झूठी तारीफों से बहलाते है और जो हाजिर ना हो उसकी पतंग काटने लगते है .....अरे भाई इसकी जगह भले किसी और की पतंग कटी हो पर उस पर जोरों से चिल्लाते हुए ,बिगुल बजाते हुए आनंद लो ...सच बच्चे बनकर देखो ...ये आनंद आपके कोई क्रेडिट या डेबिट कार्ड पर नहीं मिलता ....
मैं नीचे लौटी ..पतंग तो उडानी आती नहीं पर मेरी छत पर आई एक बहुत बड़ी पतंग को खिड़की में टांग दिया ...और रात में कंदील को भी ऐसी ही बाँध दिया ...एक फटी पतंगका तीर कमान बनाकर एक छोटी बच्ची के साथ खेली ...सच बहुत मज़ा आया .....
कभी कभी पैसेकी जगह ख़ुशी की अहमियत समजने का वक्त आ चूका है ....संचार माध्यम को चलाने वाले लोग भी इंसान ही होते है उनको एक दिन छुट्टी दे दो ....उनकी दुआ आपको तरक्की देगी ....प्रोफेशनल बनने से पहले इंसान बनो ....येही गुजारिश है ...
बिल्कुल पहले इंसान होना बहुत जरुरी है। और दूसरे की पतंग काटना कि इंसानियत जैसे खत्म हो गई है, हरेक जगह प्रोफ़ेशनलिज्म देखा जा सकता है।
जवाब देंहटाएंपहले सयुंक्त परिवार में खुशियाँ बिन मांगे मिल जाती थी,अब तो खुशियों को भी ढूँढना पड़ता है!उस पर ये लोग जो कभी भी कुच्छ भी बोलते रहते है......
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