19 मई 2009

तेरे कानकी बुँदे .....

मनमें एक कसक सी उठती थी जो उस चौराहेसे होकर कभी गुजरते थे ,

कभी आशियाना था मेरा जो ,उस जगह एक खंडहर सा खड़ा था .......

एक पलके लिए अन्दर जाने को दिल किया और चले भी गए ,

हर कौना उस घर का मेरी यादों को समेटे अभी मेरे इंतज़ारमें था .....

उस अलमारी को खोलकर देखा वहां थोडी सी गर्द को साफ़ किया ,

वो तुम्हारी कान की बुँदे जो लाया था कभी अभी वहीं पड़ी थी .......

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