27 फ़रवरी 2010

रंग बरस्यो लाल गुरार रे ....

मेरे दिल को बड़ा भाता है

जब ये रंगों का त्यौहार आता है ....

पुराने कपडेमें लिपटकर नया फ़साना दे जाता है ...

रोज तो नहाते है सुबह एक बार ही

ये दिन तो हमें दिन में कई बार नहलाता है ....

पानी भी नशा करता है रंगों का और रंगबिरंगी बन जाता है ...

ये पिचकारीमें भरता कहीं ,कहीं पूरी बाल्दी भरकर समाता है ,

इस पर भी कम लागे किसी मतवाले को तो हौज भरकर रंगीन पानी बनता है ...

काले पीले हरे लाल गुलाबी कोरे रंगसे हर चेहरा सुहाता है

बस हर चेहरे पर ख़ुशी का रंग ही नज़र आता है .....

गंदे कपडे ,रंगीन चेहरे से इंसान एक दिन के लिए बन्दरसा बन जाता है ...

अपनी इस असलियतमें भी वह इंसान ही नज़र आ जाता है ....

आओ राधा और गोपियों ,ग्वाले खड़े है गलियोंमें रंग गुलाल के थार भरके

बरसानेके लठ्ठ लेकर आ जाओ आज काना खेलेगा होरी .....

3 टिप्‍पणियां:

  1. इस रचना ..की बात तो अपुन बाद में भी कर लें..पहले होली की खूब मुबारक बाद!!

    कविता लिखने से पहले खूब पढ़ें...हाँ..भाव और विचार की आपके पास कमी नहीं है...थोडा उसकी प्रस्तुति को ..और निखारिये..

    मेरे सुझाव को अन्यथा न लीजियेगा..पता नहीं जुनूं में हर जगह कुछ न कुछ बकता रहता हूँ.

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